आज 12 मई, 2025 को भारत सहित पूरी दुनिया में बुद्ध पूर्णिमा का पर्व मनाया जा रहा है। यह दिन भगवान गौतम बुद्ध के जन्म, उनके ज्ञान की प्राप्ति और निर्वाण प्राप्ति की त्रिसुति को दर्शाता है। बौद्ध धर्म के अनुयायी इस दिन को खास मानते हैं, और इसे पूजा-पाठ, ध्यान और उपासना के साथ मनाते हैं। बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर देशभर में कई धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होते हैं, लेकिन इस दिन बोधगया स्थित महाबोधि मंदिर में एक बड़ा विवाद भी छाया हुआ है। बोधगया में बौद्ध भिक्षुओं का एक बड़ा समूह इस समय महाबोधि मंदिर के नियंत्रण को लेकर विरोध प्रदर्शन कर रहा है। इन भिक्षुओं की मुख्य मांग यह है कि बोधगया मंदिर अधिनियम, 1949 को बदलकर बौद्धों को मंदिर का पूरा नियंत्रण सौंपा जाए।
बोधगया का महत्व और बौद्ध धर्म
बोधगया वह पवित्र स्थल है, जहां भगवान गौतम बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। यही वह स्थान है, जहां गौतम बुद्ध ने 2500 साल पहले बोधि वृक्ष के नीचे बैठकर आंतरिक ध्यान और साधना से 'बोध' प्राप्त किया और वे बुद्ध बन गए। बोधगया को चार प्रमुख बौद्ध तीर्थ स्थलों में से एक माना जाता है, जिसमें लुम्बिनी (बुद्ध का जन्मस्थान), सारनाथ (बुद्ध का पहला उपदेश स्थल), और कुशीनगर (बुद्ध का निर्वाण स्थल) शामिल हैं। इस स्थान की ऐतिहासिक और धार्मिक महत्ता अत्यधिक है, जो न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया के बौद्ध अनुयायियों के लिए आस्था का केंद्र है।
महाबोधि मंदिर पर नियंत्रण का विवाद
महाबोधि मंदिर का संचालन वर्तमान में 'बोधगया मंदिर अधिनियम 1949' के तहत किया जाता है। इस अधिनियम के अनुसार, एक समिति का गठन किया गया है, जिसमें हिंदू और बौद्ध दोनों धर्मों के प्रतिनिधि शामिल हैं। इस समिति में हिंदुओं के साथ बौद्धों को भी स्थान दिया गया है। हालांकि, बौद्ध भिक्षु इस अधिनियम के तहत बौद्धों की कम भागीदारी से नाराज हैं और चाहते हैं कि मंदिर का पूरा नियंत्रण बौद्ध समुदाय के पास हो। उनका कहना है कि जब यह स्थल बौद्धों के लिए इतना महत्वपूर्ण है, तो इसे हिंदू समुदाय के साथ साझा करने की आवश्यकता नहीं है।
इस विवाद के चलते बोधगया में लगभग 100 बौद्ध भिक्षु विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं और बोधगया मंदिर एक्ट 1949 को बदलने की मांग कर रहे हैं। उनका कहना है कि यह अधिनियम अब पुराने समय की जरूरतों के अनुसार नहीं है और इसे समाप्त किया जाना चाहिए। वे चाहते हैं कि महाबोधि मंदिर का प्रशासन पूरी तरह से बौद्धों के हाथ में हो, ताकि उनके धार्मिक अधिकारों का सम्मान किया जा सके।
क्यों हो रहा है यह आंदोलन?
बोधगया में महाबोधि मंदिर का विवाद पहले भी कई बार सुर्खियों में आ चुका है। 1949 के बाद, जब इस मंदिर का प्रबंधन राज्य सरकार की देखरेख में आया, तो हिंदू और बौद्धों के बीच इस पर नियंत्रण को लेकर विवाद उत्पन्न हुआ। बिहार सरकार ने बौद्धों और हिंदुओं के बीच इस विवाद को सुलझाने के लिए बीटीए एक्ट पारित किया था, जिसमें मंदिर का संचालन एक संयुक्त समिति द्वारा किया गया था। इस समिति में चार हिंदू और चार बौद्धों को सदस्य बनाया गया। हालांकि, बौद्धों का आरोप है कि इस व्यवस्था से उनकी धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन हो रहा है।
1990 के दशक में बिहार के मुख्यमंत्री लालू यादव ने भी इस मुद्दे को उठाया था और बोधगया महाविहार विधेयक का मसौदा तैयार किया था। इस विधेयक में मंदिर का प्रबंधन बौद्धों को सौंपने की बात थी, लेकिन यह विधेयक ठंडे बस्ते में चला गया। इसके बावजूद, बौद्ध भिक्षुओं की यह मांग लगातार बनी हुई है कि महाबोधि मंदिर का प्रबंधन पूरी तरह से बौद्ध समुदाय को सौंपा जाए।
हिंदुओं के पास कैसे आया नियंत्रण?
बोधगया मंदिर का इतिहास बहुत पुराना है। 260 ईसा पूर्व में मौर्य सम्राट अशोक ने इस मंदिर का निर्माण करवाया था। अशोक ने बोधि वृक्ष के नीचे पूजा अर्चना की थी और इसे एक पवित्र स्थल के रूप में विकसित किया। हालांकि, मुस्लिम आक्रमणों के बाद मंदिर की स्थिति खराब हो गई थी, और 13वीं शताब्दी तक यह वीरान पड़ा था। इसके बाद, अकबर के शासनकाल में 1590 में हिंदू भिक्षुओं ने बोधगया मठ की पुनर्निर्माण की जिम्मेदारी ली और इसे संरक्षित किया। तब से इस मठ का नियंत्रण हिंदू भिक्षुओं के पास रहा है।
बौद्ध भिक्षुओं का विरोध
विवेकानंद गिरि, जो बोधगया मठ की देखरेख करते हैं, बौद्ध भिक्षुओं के विरोध प्रदर्शन को राजनीति से जोड़ते हैं। उनका कहना है कि इस विरोध का कोई धार्मिक आधार नहीं है, बल्कि यह एक राजनीतिक खेल है, जिसे विधानसभा चुनाव के पहले दबाव बनाने के लिए किया जा रहा है। गिरि का यह भी कहना है कि हिंदू भिक्षुओं ने इस मंदिर की देखरेख की जिम्मेदारी हमेशा निभाई है और बौद्धों के लिए हमेशा दरवाजे खुले रहे हैं।
निष्कर्ष
बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर बोधगया मंदिर का विवाद एक गहरी धार्मिक और सांस्कृतिक बहस का हिस्सा है। बौद्ध भिक्षुओं की मांग है कि मंदिर का संचालन बौद्ध समुदाय के हाथों में दिया जाए, जबकि हिंदू भिक्षुओं का कहना है कि मंदिर का इतिहास और उसकी देखरेख उनके जिम्मे रही है। इस मुद्दे का समाधान समय और समझौते पर निर्भर करेगा, और यह दोनों समुदायों के बीच बातचीत और सहमति की आवश्यकता को उजागर करता है।
बुद्ध पूर्णिमा का दिन बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए आत्मिक उन्नति और शांति का प्रतीक है। यदि इस विवाद का समाधान शांति और समझदारी से किया जाता है, तो यह न केवल बौद्धों, बल्कि पूरे समाज के लिए एक सकारात्मक कदम होगा।